Friday, November 9, 2012

इस उम्र में बचपन


आज  की इस दुनिया में
स्वार्थ की इस दौड़ में
खोकर अपनी मासूमियत
जिंदगी उम्र से पहले बड़ी हो जाती है !
इस समय इस उम्र में
तेरी बचपन जैसी मासूमियत
बच्चों जैसी हरकतें वो खिलखिलाहट
मुझे लुभाती है!
इस लुभावने स्वप्न में
तेरी ये ख़ूबसूरत आँखें
हाथों को थामकर चलने के लिए
मुझे बुलाती हैं !
पर जिंदगी के इस जंगल में
तुम्हारी यही मासूमियत
यही अनजानापन यही सादगी
मुझे डराती है !
फिर भी इन तपती राहों में
मेरी ये बेजार जिंदगी
तेरे बचपन की छाँव चाहती है !

Tuesday, August 14, 2012

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व सांझ


स्वतंत्रता दिवस की इस पूर्व सांझ पर
जब मैं चारों और नजरें घुमाता हूँ
नजर आता है एक धुंधलका
खोये हुए चेहरे
भटके हुए लोग
दम तोडती उम्मीदें
दफने हुए आदर्श !

पर जब मैं ध्यान से सुनता हूँ
सुनाई देता है नेपथ्य में एक कोलाहल
हालात बदलने का
मुसीबतों से लड़ने का
अपने अधिकारों को पाने का
आदर्शों की नींव बनाने का !

इस कोलाहल को तीव्र करना होगा
धुंधलके को दूर करना होगा
पीछे हटने से कुछ नही होगा
आगे बढ़ स्वयं प्रकाश पुंज बनना होगा !

Monday, August 13, 2012

फूटी किस्मत


हर आँसू पर
क्या उसका नाम लिखा था
हर काँटों की डगर पर
क्या उसका नाम लिखा था
पैदा होने से पहले मौत पर भी
क्या उसका नाम लिखा था
भाई की झूठन पर भी
क्या उसका नाम लिखा था

उसके बचपन पर
घर का बोझ रखा था
उसकी किताबों पर
दहेज़ का बोझ रखा था
उसके सपनों पर
मर्यादा का बोझ रखा था
उसके जीवन पर
उपेक्षा का बोझ रखा था

इन काँटों पर भी चलकर
इस बोझ को भी उठाकर
हद तब हुई जब
उसकी फूटी किस्मत में
दहेज़ से जलना लिखा था !

Sunday, July 22, 2012

दोस्ती की कशमकश


शायद उन्हें हमारी दोस्ती का एहसास था
शायद उन्हें हमारे होने  का एहसास था
तभी तो कुछ दिनों में याद आ जाती थी
तभी तो कुछ दिनों में खैरियत की खबर दी जाती थी
शायद एहसास तो आज भी हैं उन्हें
शायद विस्मृति के क्षणों में याद आज भी हैं उन्हें
पर जिंदगी की पहेली में उलझ जाते हैं
शायद रोज चलते चलते थक जाते हैं
बस उम्मीद है
कभी ख़तम होगी ये कशमकश
पहेलियों में उलझने की
थक कर चूर होने की
तब उन्हें याद आयेगा
मुझे दोस्तों को अपनी खैरियत की खबर देनी थी !

Sunday, May 13, 2012

है कदम चंद बाकी


है दिन चंद बाकी
हिम्मत ना हार साथी
कदम तू चंद चलेगा
सपनों का फल मिलेगा
खड़ा है मुश्किलों का पहाड़ सामने
हार का भय है अवरोध मार्ग में
त्याग इस भय को
हो निर्भय बढ़ पथ पर
कर दृष्टिपात बस मंजिल पर
उदारहण अनेक हैं इतिहास के गर्भ में
कहानियां अंकेक हैं लोगों के मन में
जब चंद कदमो की दूरी ने
किसी की किस्मत बदली है

आखिर कब कहूँगा मैं


आखिर मैं क्यूँ चाहता हूँ इतना उसको
बोल भी नही पाता हूँ दो शब्द उसको
डरता हूँ किसी शब्द का बुरा ना मान जाये
डरता हूँ मेरी नजर कुछ एहसास ना करा जाये
इसलिए मैं बात करता हूँ उसकी तस्वीर से
इसलिए मैं उसका दीदार करता हूँ दूर से
जानता हूँ उस चाँद को छू ना पाउँगा मैं
पर इस इजहार-ए-इश्क को कब तक रोक पाऊंगा मैं

Monday, April 9, 2012

ना कर पाया

मैं कुछ कहना चाहता था
पर कह ना पाया
में उस चाँद को छूना चाहता था
पर छू ना पाया
मैं उसे जी भर कर निहारना चाहता था
पर नजर भी उठा न पाया
मैं उसकी बातों में जिंदगी गुजरना चाहता था
पर उसकी हेल्लो का जवाब भी नही दे पाया
मैं अपने सपनो को हकीकत में चाहता था
पर बदल ना पाया
ये सब हुआ क्यूंकि
मैं उससे प्यार का इजहार करना चाहता था
पर वो भी ना कर पाया

मेरी नजर

नव वर्ष के आगमन पर
झूमते कदमो की थिरकन पर
चहकते चेहरो की रोशनी पर
फूटते पटाखों की रोशनी पर
मेरी नजर थी
कोने में दो मासूम चेहरों पर
कपड़ो से झांकती गरीबी पर
चेहरों पर छाई मायूसी पर
फिर भी इस उजाले की उत्सुकता पर
मेरी नजर पड़ी
पलटकर निगाहें जमाई अपनी बीयर पर
लगा थिरकने में भी डांस फ्लोर पर
भूल गया जो देखा था वहां पर
आते वक़्त गाड़ी में से उन चेहरो पर
फिर मेरी नजर पड़ी

Tuesday, March 20, 2012

मैंने क्या चाहा

गरजते बादल ने मुझे रोकना चाहा
चमकती बिजली ने मुझे डराना चाहा
बरसती बूंदों ने मुझे पिघलाना चाहा
गिरते ओलों ने मुझे तोडना चाहा
न मैं रुका न मैं डरा
न मैं पिघला न मैं टूटा
मैंने तो बस किसी के लिए जलना चाहा
जलन मेरी मिटाने के लिए उसने मुझे बुझाना चाहा
मैंने फिर से उसकी रोशनी के लिए जलना चाहा
उसके बाद सूखे के दौर ने मुझे रुलाना चाहा
रोते रोते मैंने फिर से उसे हँसाना चाहा

सपनों की छाँव

देख मंजिल को सामने
मजबूत होते हैं इरादे
बढ़ते हैं कदम
कम होती हैं दूरियां
आती हैं बाधाएं
टूटती हैं आशाएं
चलता हूँ दो कदम वापस
बटोरता हूँ बढ़ने का साहस
कल्पना करता हूँ मंजिल की
जिद करता हूँ न झुकने की
बस चार कदम चलना है बाकी
उन सपनों की छाँव में सोना है बाकी

Sunday, March 4, 2012

आशिक क्या चाहता था

ख़ामोशी में अपनी डूबकर
उसके चेहरे को निहारना चाहता था
जाती हुई उसकी कश्ती को देखकर
लहरों में खो जाना चाहता था
साथ बिताये हर लम्हों को यादकर
शब्द माला में पिरोना चाहता था
प्रथम मिलन की उस जगह बैठकर
छवि उसकी रंगों में उकेरना चाहता था
बिना उसके बोझिल कदमों से चलकर
वो आशिक दो कदम चल बिखर जाता था

चार लोगों की खोज

फेसबुक पर बड़े दिनों से
एक सवाल घूम रहा है
जिसे देखो उसी की वाल पर
यह सवाल दिख रहा है
आखिर कौन है वो चार लोग
जिनका हमारी जिंदगी में इतना दखल रहा है
यह सवाल है उन लोगो का
जिन्हें खुद से बड़ा प्यार रहा है
बड़े दिनों की सोच के बाद
एक जवाब मुझे कौंध रहा है
पडोसी पापा के दोस्त
मम्मी की सहेलियां और हमारे रिश्तेदार
यही है वो चार लोग
जिनका हमेशा डर रहा है

आप सभी दोषी हो

खड़े होकर लहरों के किनारे
पलटती कश्ती को देख मुँह मोड़ लो
तो आप भी दोषी हो
किसी चौराहे पर होती हत्या
लुटी आबरू को देख आगे बढ़ जाओ
तो आप भी दोषी हो
आइंस्टीन का विज्ञानं अशोक का इतिहास
पढने के बाद भी गलत देख ना बोलो
तो आप भी दोषी हो
दोषी थी कुरुसभा द्रौपदी चीरहरण के लिए
वैसे ही लुटते हुए इस देश के लिए
अपनी गलती दूसरों के सर मढने के लिए
आप सभी दोषी हो

Saturday, February 18, 2012

दौड़

खोना मैं चाहता हूँ कही
किसी सपने कि दुनिया में
आँखे जब मैं बंद करूँ
तो बस उजाला हो
चाहकर भी जा नहीं सकता
मैं उस हसीन दुनिया में वापस
आँखे जब बंद करूँ
तो बस उन लोगों का मेला हो
जिनकी आवाजों के बिन
कभी न बीतते थे मेरे दिन
कहाँ खो गये वो लोग
शायद निगल गयी जिंदगी उनको
या मैं व्यस्त हो गया
अपनी उस अंतहीन दौड़ में
शुरू किया था तालियाँ बजाना
उन्होंने साथ में खड़े होकर
दौड़ते-दौड़ते मैं इतना आगे आ गया
सब छूट गए पीछे जब देखा मुड़कर
रुकना चाहता हूँ मैं भी अब
करूँगा इंतज़ार किसी किनारे पर बैठकर

नारी

बचपन से सुना है
इस देश में कभी
माना जाता था
नारी को पूजा जाता था
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
रमन्ते तत्र देवता
इस वाक्य को बचपन में
बार बार पढाया जाता था
पूजा होती लेकिन कब थी
ये आज तक समझ में नहीं आया
रामायण काल में सीता को
अग्नि परीक्षा में झुलसाया
महाभारत की लड़ाई में
द्रोपदी के चीरहरण ने शीश झुकवाया
कहते हैं अधिकार था
वर चयन का उस समय में
पर सती के चयन को दक्ष ने ठुकराया
मैत्रयी याग्वाल्क्य वाद विवाद
जैसे जैसे गहराया
उस समाज में छिपी
कलुषित वृत्ति को सामने लाया
था इतिहास का स्वर्ण युग
गुप्त काल को वो समय था
रामगुप्त ने दे ध्रुवस्वामिनी
अपना राज्य बचाया
उसके बाद की कहानी
सबको पता है
स्त्रियों को रख कैद में
हमने यह संसार रचा है

एहसास

एक अश्रु की बूँद थी
उसके कपोलों पर
न दुःख का प्यार का
एहसास थी ये घृणा का
गलती क्या थी
कोई है नही उसका
रोज मिलने वाली झिडकी
एहसास थी सजा का
सामने से निकली
बच्चो से भरी बस
देखा उसने उधर
एहसास था वंचना का
टूट कर गिरी
एक प्लेट और
मालिक की लात
एहसास था भूख का लाचारी का

मुश्किल

उसकी तस्वीर से निगाह हटाना
इतना मुश्किल क्यूँ है
इजहार - ए- इश्क करना
इतना मुश्किल क्यूँ है
उसकी हंसी को निहारना
इतना हसीं क्यूँ है
उसके साथ चले दो कदम
इतने हसीं क्यूँ है
किसी को भूल पाना
इतना मुश्किल क्यूँ है
छलकते आंसुओ को रोक पाना
इतना मुश्किल क्यूँ है
उसकी तस्वीरो को पलटना
इतना हसीं क्यूँ है
उसकी याद में खो जाना
इतना हसीं क्यूँ है

डाकिया

आज मैं दिल्ली की सडको पर
एक डाकिया ढूढने निकला
खाकी कपडे पहने
चर चूं करती साइकिल पर बैठे
एक झोला लटकाए
चिट्ठियां बांटते देखने निकला
ई मेल के ज़माने में
मेसेज की दुनिया में
उन पुराने दिनों की
चिट्ठी की खुशबु ढूढने निकला
दौड़ाता रहा मैं बाइक अपनी
न दिखा डाकिया कोई
थक कर मैने सोचा
आखिर मै क्यूँ निकला
याद आया बचपन अपना
दादी के कहने पर पत्र लिखना
दौड़ गयी दुनिया आगे
यह सफ़र कितना आगे निकला

उलझन

तेरे मासूम चेहरे के पीछे
डरावना चेहरा क्यूँ है
तेरी नजाकत के पीछे
इतनी सख्ती क्यूँ है
तेरी नफासत के पीछे
बेतरतीबियां क्यूँ हैं
तेरी हर अदा के पीछे
एक बचपना क्यूँ है
तेरी हर मुसकुराहट के पीछे
एक गम क्यूँ है
तेरे छलकते आंसू के पीछे
दिल में ठंडक क्यूँ है
तेरे लौटते कदमो के पीछे
इतना बेइंतिहा प्यार क्यूँ है
तेरी हर बेवफाई के पीछे
इतनी वफाई क्यूँ है

परिवर्तन

बैठे-बैठे मैंने सोचा आज
आखिर क्या है परिवर्तन
आंसुओ के ढेर को छोड़कर
ख़ुशी ढूंढ़ना है परिवर्तन
निराशा के बादलो में
आशा कि किरण है परिवर्तन
जाने पहचाने रास्तों कि भीड़ में
नया रास्ता है परिवर्तन
सोते हुए लोगों कि दुनिया में
बस जागना है परिवर्तन
अपनों के गम की धुंध में
मजलूम की ख़ुशी का एहसास है परिवर्तन
नापसंद को बदलने की कोशिश में
जिंदगी का हर दिन है परिवर्तन
यदि खुल कर जियो तो
दिन का हर पल है परिवर्तन