Saturday, February 18, 2012

डाकिया

आज मैं दिल्ली की सडको पर
एक डाकिया ढूढने निकला
खाकी कपडे पहने
चर चूं करती साइकिल पर बैठे
एक झोला लटकाए
चिट्ठियां बांटते देखने निकला
ई मेल के ज़माने में
मेसेज की दुनिया में
उन पुराने दिनों की
चिट्ठी की खुशबु ढूढने निकला
दौड़ाता रहा मैं बाइक अपनी
न दिखा डाकिया कोई
थक कर मैने सोचा
आखिर मै क्यूँ निकला
याद आया बचपन अपना
दादी के कहने पर पत्र लिखना
दौड़ गयी दुनिया आगे
यह सफ़र कितना आगे निकला

No comments:

Post a Comment