आज मैं दिल्ली की सडको पर
एक डाकिया ढूढने निकला
खाकी कपडे पहने
चर चूं करती साइकिल पर बैठे
एक झोला लटकाए
चिट्ठियां बांटते देखने निकला
ई मेल के ज़माने में
मेसेज की दुनिया में
उन पुराने दिनों की
चिट्ठी की खुशबु ढूढने निकला
दौड़ाता रहा मैं बाइक अपनी
न दिखा डाकिया कोई
थक कर मैने सोचा
आखिर मै क्यूँ निकला
याद आया बचपन अपना
दादी के कहने पर पत्र लिखना
दौड़ गयी दुनिया आगे
यह सफ़र कितना आगे निकला
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