Saturday, February 18, 2012

दौड़

खोना मैं चाहता हूँ कही
किसी सपने कि दुनिया में
आँखे जब मैं बंद करूँ
तो बस उजाला हो
चाहकर भी जा नहीं सकता
मैं उस हसीन दुनिया में वापस
आँखे जब बंद करूँ
तो बस उन लोगों का मेला हो
जिनकी आवाजों के बिन
कभी न बीतते थे मेरे दिन
कहाँ खो गये वो लोग
शायद निगल गयी जिंदगी उनको
या मैं व्यस्त हो गया
अपनी उस अंतहीन दौड़ में
शुरू किया था तालियाँ बजाना
उन्होंने साथ में खड़े होकर
दौड़ते-दौड़ते मैं इतना आगे आ गया
सब छूट गए पीछे जब देखा मुड़कर
रुकना चाहता हूँ मैं भी अब
करूँगा इंतज़ार किसी किनारे पर बैठकर

नारी

बचपन से सुना है
इस देश में कभी
माना जाता था
नारी को पूजा जाता था
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
रमन्ते तत्र देवता
इस वाक्य को बचपन में
बार बार पढाया जाता था
पूजा होती लेकिन कब थी
ये आज तक समझ में नहीं आया
रामायण काल में सीता को
अग्नि परीक्षा में झुलसाया
महाभारत की लड़ाई में
द्रोपदी के चीरहरण ने शीश झुकवाया
कहते हैं अधिकार था
वर चयन का उस समय में
पर सती के चयन को दक्ष ने ठुकराया
मैत्रयी याग्वाल्क्य वाद विवाद
जैसे जैसे गहराया
उस समाज में छिपी
कलुषित वृत्ति को सामने लाया
था इतिहास का स्वर्ण युग
गुप्त काल को वो समय था
रामगुप्त ने दे ध्रुवस्वामिनी
अपना राज्य बचाया
उसके बाद की कहानी
सबको पता है
स्त्रियों को रख कैद में
हमने यह संसार रचा है

एहसास

एक अश्रु की बूँद थी
उसके कपोलों पर
न दुःख का प्यार का
एहसास थी ये घृणा का
गलती क्या थी
कोई है नही उसका
रोज मिलने वाली झिडकी
एहसास थी सजा का
सामने से निकली
बच्चो से भरी बस
देखा उसने उधर
एहसास था वंचना का
टूट कर गिरी
एक प्लेट और
मालिक की लात
एहसास था भूख का लाचारी का

मुश्किल

उसकी तस्वीर से निगाह हटाना
इतना मुश्किल क्यूँ है
इजहार - ए- इश्क करना
इतना मुश्किल क्यूँ है
उसकी हंसी को निहारना
इतना हसीं क्यूँ है
उसके साथ चले दो कदम
इतने हसीं क्यूँ है
किसी को भूल पाना
इतना मुश्किल क्यूँ है
छलकते आंसुओ को रोक पाना
इतना मुश्किल क्यूँ है
उसकी तस्वीरो को पलटना
इतना हसीं क्यूँ है
उसकी याद में खो जाना
इतना हसीं क्यूँ है

डाकिया

आज मैं दिल्ली की सडको पर
एक डाकिया ढूढने निकला
खाकी कपडे पहने
चर चूं करती साइकिल पर बैठे
एक झोला लटकाए
चिट्ठियां बांटते देखने निकला
ई मेल के ज़माने में
मेसेज की दुनिया में
उन पुराने दिनों की
चिट्ठी की खुशबु ढूढने निकला
दौड़ाता रहा मैं बाइक अपनी
न दिखा डाकिया कोई
थक कर मैने सोचा
आखिर मै क्यूँ निकला
याद आया बचपन अपना
दादी के कहने पर पत्र लिखना
दौड़ गयी दुनिया आगे
यह सफ़र कितना आगे निकला

उलझन

तेरे मासूम चेहरे के पीछे
डरावना चेहरा क्यूँ है
तेरी नजाकत के पीछे
इतनी सख्ती क्यूँ है
तेरी नफासत के पीछे
बेतरतीबियां क्यूँ हैं
तेरी हर अदा के पीछे
एक बचपना क्यूँ है
तेरी हर मुसकुराहट के पीछे
एक गम क्यूँ है
तेरे छलकते आंसू के पीछे
दिल में ठंडक क्यूँ है
तेरे लौटते कदमो के पीछे
इतना बेइंतिहा प्यार क्यूँ है
तेरी हर बेवफाई के पीछे
इतनी वफाई क्यूँ है

परिवर्तन

बैठे-बैठे मैंने सोचा आज
आखिर क्या है परिवर्तन
आंसुओ के ढेर को छोड़कर
ख़ुशी ढूंढ़ना है परिवर्तन
निराशा के बादलो में
आशा कि किरण है परिवर्तन
जाने पहचाने रास्तों कि भीड़ में
नया रास्ता है परिवर्तन
सोते हुए लोगों कि दुनिया में
बस जागना है परिवर्तन
अपनों के गम की धुंध में
मजलूम की ख़ुशी का एहसास है परिवर्तन
नापसंद को बदलने की कोशिश में
जिंदगी का हर दिन है परिवर्तन
यदि खुल कर जियो तो
दिन का हर पल है परिवर्तन