Tuesday, March 20, 2012

मैंने क्या चाहा

गरजते बादल ने मुझे रोकना चाहा
चमकती बिजली ने मुझे डराना चाहा
बरसती बूंदों ने मुझे पिघलाना चाहा
गिरते ओलों ने मुझे तोडना चाहा
न मैं रुका न मैं डरा
न मैं पिघला न मैं टूटा
मैंने तो बस किसी के लिए जलना चाहा
जलन मेरी मिटाने के लिए उसने मुझे बुझाना चाहा
मैंने फिर से उसकी रोशनी के लिए जलना चाहा
उसके बाद सूखे के दौर ने मुझे रुलाना चाहा
रोते रोते मैंने फिर से उसे हँसाना चाहा

सपनों की छाँव

देख मंजिल को सामने
मजबूत होते हैं इरादे
बढ़ते हैं कदम
कम होती हैं दूरियां
आती हैं बाधाएं
टूटती हैं आशाएं
चलता हूँ दो कदम वापस
बटोरता हूँ बढ़ने का साहस
कल्पना करता हूँ मंजिल की
जिद करता हूँ न झुकने की
बस चार कदम चलना है बाकी
उन सपनों की छाँव में सोना है बाकी

Sunday, March 4, 2012

आशिक क्या चाहता था

ख़ामोशी में अपनी डूबकर
उसके चेहरे को निहारना चाहता था
जाती हुई उसकी कश्ती को देखकर
लहरों में खो जाना चाहता था
साथ बिताये हर लम्हों को यादकर
शब्द माला में पिरोना चाहता था
प्रथम मिलन की उस जगह बैठकर
छवि उसकी रंगों में उकेरना चाहता था
बिना उसके बोझिल कदमों से चलकर
वो आशिक दो कदम चल बिखर जाता था

चार लोगों की खोज

फेसबुक पर बड़े दिनों से
एक सवाल घूम रहा है
जिसे देखो उसी की वाल पर
यह सवाल दिख रहा है
आखिर कौन है वो चार लोग
जिनका हमारी जिंदगी में इतना दखल रहा है
यह सवाल है उन लोगो का
जिन्हें खुद से बड़ा प्यार रहा है
बड़े दिनों की सोच के बाद
एक जवाब मुझे कौंध रहा है
पडोसी पापा के दोस्त
मम्मी की सहेलियां और हमारे रिश्तेदार
यही है वो चार लोग
जिनका हमेशा डर रहा है

आप सभी दोषी हो

खड़े होकर लहरों के किनारे
पलटती कश्ती को देख मुँह मोड़ लो
तो आप भी दोषी हो
किसी चौराहे पर होती हत्या
लुटी आबरू को देख आगे बढ़ जाओ
तो आप भी दोषी हो
आइंस्टीन का विज्ञानं अशोक का इतिहास
पढने के बाद भी गलत देख ना बोलो
तो आप भी दोषी हो
दोषी थी कुरुसभा द्रौपदी चीरहरण के लिए
वैसे ही लुटते हुए इस देश के लिए
अपनी गलती दूसरों के सर मढने के लिए
आप सभी दोषी हो