Friday, April 10, 2015

बिखरी झूठन

एक पुतला था
हांड मांस का
चमकती थी हड्डियां
शरीर में ऐसे
प्रदर्शनी में रखी हो
वो जैसे !

गोद में थी एक गठरी जैसी
सजीव पर अर्धचेतन
कुलबुला रही थी वो
भूखी हो वर्षों से जैसे !

लाचार ताक रहा था वो
उस झूठन पर
जो बिखरी पड़ी थी
हर टेबल पर  !

सोचा उसने
पल सकता था परिवार मेरा
उस झूठन पर
जो छोड़ी थी लोगों ने
हर टेबल पर !

एहसास नही है उनको
भूख के दर्द का
पहचान नही है उनको
एक कृषक के परिश्रम का !

देता है प्यार अपने बेटे जैसा
हर किसान अपनी फसल को
ठुकराया जाता है वही भोजन
परोसा जाता है जब कुछ नासमझों का  …

भय

जकड़ लेता है कदम मेरे
संशय को देता है ये जन्म
विस्मृत करता है अपनी पहचान
ये डर !

जो इस भय पर विजय पाता है
वह कर्मयोगी अर्जुन कहलाता है
वही बन गांधी रास्ता दिखलाता है
वही बन भगतसिंह बधिरों को सुनाता है !

इस भय को भगाना होगा
मनुष्य की आत्म चेतना को जगाना होगा
स्वयं का स्वयं से परिचय कराना होगा
ज्ञान की रश्मि से प्रकाश फैलाना होगा !

स्व से कर साक्षात्कार
रखेगा मनुष्य नव निर्माण का आधार
एक ऐसे विश्व की सृष्टि होगी
जहाँ डर की कोई जगह ना होगी
छायी हर चेहरे पर एक हंसी होगी !