Friday, April 10, 2015

बिखरी झूठन

एक पुतला था
हांड मांस का
चमकती थी हड्डियां
शरीर में ऐसे
प्रदर्शनी में रखी हो
वो जैसे !

गोद में थी एक गठरी जैसी
सजीव पर अर्धचेतन
कुलबुला रही थी वो
भूखी हो वर्षों से जैसे !

लाचार ताक रहा था वो
उस झूठन पर
जो बिखरी पड़ी थी
हर टेबल पर  !

सोचा उसने
पल सकता था परिवार मेरा
उस झूठन पर
जो छोड़ी थी लोगों ने
हर टेबल पर !

एहसास नही है उनको
भूख के दर्द का
पहचान नही है उनको
एक कृषक के परिश्रम का !

देता है प्यार अपने बेटे जैसा
हर किसान अपनी फसल को
ठुकराया जाता है वही भोजन
परोसा जाता है जब कुछ नासमझों का  …

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